लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
अध्याय 48
काशी के म्युनिसिपल
बोर्ड में भिन्न-भिन्न राजनीतिक सम्प्रदायों
के लोग मौजूद
थे। एकवाद से
लेकर जनसत्तावाद तक
सभी विचारों के
कुछ-न-कुछ
आदमी थे। अभी
तक धान का
प्राधान्य नहीं था,
महाजनों और रईसों
का राज्य था।
जनसत्ता के अनुयाई
शक्तिहीन थे। उन्हें
सिर उठाने का
साहस न होता
था। राजा महेंद्रकुमार
की ऐसी धाक
बँधी हुई थी
कि कोई उनका
विरोधा न कर
सकता था। पर
पाँड़ेपुर के सत्याग्रह
ने जनसत्तावादियों में
एक नई संगठन-शक्ति पैदा कर
दी। उस दुर्घटना
का सारा इलजाम
राजा साहब के
सिर मढ़ा जाने
लगा। यह आंदोलन
शुरू हुआ कि
उन पर अविश्वास
का प्रस्ताव उपस्थित
किया जाए। दिन-दिन आंदोलन
जोर पकड़ने लगा।
लोकमतवादियों ने निश्चय
कर लिया कि
वर्तमान व्यवस्था का अंत
कर देना चाहिए,
जिसके द्वारा जनता
को इतनी विपत्तिा
सहनी पड़ी। राजा
साहब के लिए
यह कठिन परीक्षा
का अवसर था।
एक ओर तो
अधिाकारी लोग उनसे
असंतुष्ट थे दूसरी
ओर यह विरोधी
दल उठ खड़ा
हुआ। बड़ी मुश्किल
में पड़े। उन्होंने
लोकवादियों की सहायता
से विरोधिायों का
प्रतिकार करने को
ठानी थी। उनके
राजनीतिक विचारों में भी
कुछ परिवर्तन हो
गया था। वह
अब जनता को
साथ लेकर म्युनिसिपैलिटी
का शासन करना
चाहते थे। पर
अब क्या हो?
इस प्रस्ताव को
रोकने के लिए
उद्योग करने लगे।
लोकमतवाद के प्रमुख
नेताओं से मिले,
उन्हें बहुत कुछ
आश्वासन दिया कि
भविष्य में उनकी
इच्छा के विरुध्द
कोई काम न
करेंगे, इधार अपने
दल को भी
संगठित करने लगे।
जनतावादियों को वह
सदैव नीची निगाह
से देखा करते
थे। पर अब
मजबूर होकर उन्हीं
की खुशामद करनी
पड़ी। वह जानते
थे कि बोर्ड
में यह प्रस्ताव
आ गया, तो
उसका स्वीकृत हो
जाना निश्चित है।
खुद दौड़ते थे,
अपने मित्रों को
दौड़ाते थे कि
किसी उपाय से
यह बला सिर
से टल जाए,
किंतु पाँड़ेपुर के
निवासियों का शहर
में रोते फिरना
उनके सारे यत्नों
को विफल कर
देता था। लोग
पूछते थे, हमें
क्योंकर विश्वास हो कि
ऐसी ही निरंकुशता
का व्यवहार न
करेंगे। सूरदास हमारे नगर
का रत्न था,
कुँवर विनयसिंह और
इंद्रदत्ता मानव-समाज
के रत्न थे।
उनका खून किसके
सिर पर है?
अंत में यह
प्रस्ताव नियमित रूप से
बोर्ड में आ
ही गया। उस
दिन प्रात:काल
से म्युनिसिपल बोर्ड
के मैदान में
लोगों का जमाव
होने लगा। यहाँ
तक कि दोपहर
होते-होते 10-20 हजार
आदमी एकत्रा हो
गए। एक बजे
प्रस्ताव पेश हुआ।
राजा साहब ने
खड़े होकर बड़े
करुणोत्पादक शब्दों में अपनी
सफाई दी; सिध्द
किया कि मैं
विवश था, इस
दशा में मेरी
जगह पर कोई
दूसरा आदमी होता,
तो वह भी
वही करता, जो
मैंने किया, इसके
सिवा अन्य कोई
मार्ग न था।
उनके अंतिम शब्द
ये थे-मैं
पद-लोलुप नहीं
हूँ, सम्मान-लोलुप
नहीं हूँ, केवल
आपकी सेवा का
लोलुप हूँ, अब
और भी ज्यादा,
इसलिए कि मुझे
प्रायश्चित्ता करना है,
जो इस पद
से अलग होकर
मैं न कर
सकूँगा, वह साधान
ही मेरे हाथ
से निकल जाएगा।
सूरदास का मैं
उतना ही भक्त
हूँ, जितना और
कोई व्यक्ति हो
सकता है। आप
लोगों को शायद
मालूम नहीं है
कि मैंने शफाखाने
में जाकर उनसे
क्षमा-प्रार्थना की
थी, और सच्चे
हृदय से खेद
प्रकट किया था।
सूरदास का ही
आदेश था कि
मैं अपने पद
पर स्थिर रहूँ,
नहीं तो मैंने
पहले ही पद-त्याग करने का
निश्चय कर लिया
था। कुँवर विनयसिंह
की अकाल मृत्यु
का जितना दु:ख मुझे
है, उतना उनके
माता-पिता को
छोड़कर किसी को
नहीं हो सकता।
वह मेरे भाई
थे। उनकी मृत्यु
ने मेरे हृदय
पर वह घाव
कर दिया है,जो जीवन-पर्यंत न भरेगा।
इंद्रदत्त से भी
मेरी घनिष्ठ मैत्री
थी। क्या मैं
इतना अधम, इतना
कुटिल, इतना नीच,
इतना पामर हूँ
कि अपने हाथों
अपने भाई और
अपने मित्र की
गर्दन पर छुरी
चलाता? यह आक्षेप
सर्वथा अन्यायपूर्ण है, यह
मेरे जले पर
नमक छिड़कना है।
मैं अपनी आत्मा
के सामने, परमात्मा
के सामने निर्दोष
हूँ। मैं आपको
अपनी सेवाओं की
याद नहीं दिलाना
चाहता, वह स्वयंसिध्द
है। आप लोग
जानते हैं, मैंने
आपकी सेवा में
अपना कितना समय
लगाया है, कितना
परिश्रम, कितना अनवरत उद्योग
किया है! मैं
रिआयत नहीं चाहता,
केवल न्याय चाहता
हूँ।
वक्तृता बड़ी प्रभावशाली
थी, पर जनवादियों
को अपने निश्चय
से न डिगा
सकी। पंद्रह मिनट
में बहुमत से
प्रस्ताव स्वीकृत हो गया
और राजा साहब
ने भी तत्क्षण
पद-त्याग की
सूचना दे दी।
जब वह सभा-भवन से
बाहर निकले, तो
जनता ने, जिन्हें
उनका व्याख्यान सुनने
का अवसर न
मिला था, उन
पर इतनी फब्तियाँ
उड़ाईं,इतनी तालियाँ
बजाईं कि बेचारे
बड़ी मुश्किल से
अपनी मोटर तक
पहुँच सके। पुलिस
ने चौकसी न
की होती, तो
अवश्य दंगा हो
जाता। राजा साहब
ने एक बार
पीछे फिरकर सभा-भवन को
सजल नेत्रों से
देखा और चले
गए। कीर्ति-लाभ
उनके जीवन का
मुख्य उद्देश्य था,
और उसका यह
निराशापूर्ण परिणाम हुआ। सारी
उम्र की कमाई
पर पानी फिर
गया, सारा यश,
सारा गौरव, सारी
कीर्ति जनता के
क्रोध-प्रवाह में
बह गई।
राजा साहब वहाँ
से जले हुए
घर आए, तो
देखा कि इंदु
और सोफिया दोनों
बैठी बातें कर
रही हैं। उन्हें
देखते ही इंदु
बोली-मिस सोफिया
सूरदास की प्रतिमा
के लिए चंदा
जमा कर रही
हैं। आप भी
तो उसकी वीरता
पर मुग्धा हो
गए थे, कितना
दीजिएगा?
सोफी-इंदुरानी ने 1000 रुपया
प्रदान किया है,
और इसके दुगने
से कम देना
आपको शोभा न
देगा।
महेंद्रकुमार
ने त्योरियाँ चढ़ाकर
कहा-मैं इसका
जवाब सोचकर दूँगा।
सोफी-फिर कब
आऊँ?
महेंद्रकुमार
ने ऊपरी मन
से कहा-आपके
आने की जरूरत
नहीं है, मैं
स्वयं भेज दूँगा।
सोफिया ने उनके
मुख की ओर
देखा, तो त्योरियाँ
चढ़ी हुई थीं।
उठकर चली गई।
तब राजा साहब
इंदु से बोले-तुम मुझसे
बिना पूछे क्यों
ऐसा काम करती
हो, जिससे मेरा
सरासर अपमान होता
है? मैं तुम्हें
कितनी बार समझाकर
हार गया। आज
उसी अंधो की
बदौलत मुझे मुँह
की खानी पड़ी,
बोर्ड ने मुझ
पर अविश्वास का
प्रस्ताव पास कर
दिया, और उसी
की प्रतिमा के
लिए तुमने चंदा
दिया और मुझे
भी देने को
कह रही हो!